हिन्दी ही राजभाषा क्यों ?

हिन्दी ही राजभाषा क्यों ? यह सवाल प्रायः सभी हिंदीतर भाषियों द्वारा लगातार उठाया जाता रहा है , लेकिन जिन्हें " हिन्दी राजभाषा कैसे और क्यों बनी " इस सम्बन्ध में थोडी बहुत भी जानकारी है तो उन्हें इस प्रश्न का उत्तर देने में कोई भी परेशानी नही होनी चाहिए । दरअसल सिर्फ़ राजभाषा ही नही बल्कि हमारे संविधान में शामिल सभी सभी पहलुयों पर व्यापक और गहन चर्चा के लिए संविधान सभा ने अलग अलग तारीख तय किया था । तत्कालीन सदस्यों ने संविधान निर्माण की प्रारूप समिति में शामिल होकर संविधान निर्माण के लिए अपनी - अपनी सेवाएँ भी दी थी , इसी क्रम में डॉ गोपाल स्वामी आयंगर की अध्यक्षता में बनी संविधान निर्माण उप समिति ने राजभाषा के प्रश्न पर विचार के लिए १२ से १४ सितम्बर १९४९ का दिन तय किया। यह भी कम रोचक प्रश्न नही है कि संविधान सभा ने राजभाषा चयन का मुद्दे पर सबसे आख़िर में क्यों लिया ? शायद दूरदर्शी संविधान निर्माताओं को यह भय था कि अगर भाषा के नाम पर ही लोग अश्हिनु होकर आपस में लड़ने लग जायें तो शायद संविधान ही न बन पायेगा इसलिए अन्य जरुरी मुद्दों पर सहमति बन जाने के बाद इन्होने भाषा के प्रश्न को उठाना वाजिब समझा । यही कारण है कि संविधान के भाग -५ अध्याय -१७ में यानि संविधान के अन्तिम हिस्सों में ही राजभाषा का जिक्र आता है ।
डॉ गोपाल आयंगर की अध्यक्षता में बनी उप समिति में , जिन्होंने ''संघ की राजभाषा क्या हो" इस बात पर लम्बी चर्चा की , उसमें डॉ राजेंद्र प्रसाद ,सेठ गोविन्द दास ,नाज़िरुद्दीन अहमद , एस नागप्पा , पंडित गोविन्द मालवीय , कला वेंकट राव , काजी सैइयद करीमुद्दीन ,देशबंधु गुप्ता , एस वी कृष्ण मूर्ति राव , मौलाना हिफ्ज़ुर्रह्मन , आर वी धुलेकर, एच आर गुरुव रेड्डी , पंडित नेहरू , पंडित लक्ष्मी कान्त मैत्र , बालकृष्ण शर्मा , एच वी कामत, फ्रैंक अन्थोनी , वी आए मुनि स्वामी पिल्लै , एन वी गाडगीळ , टी ऐ राम्लिगम चेट्टियार ,अलगू राय शास्त्री , डॉ श्यामा प्रसाद मुख़र्जी , पी टी चाको , बी दास , एच जे खांडेकर , डॉ पी सुब्बारायण , कुलधर चालिया , पंडित रविशंकर शुक्ला , शकर राय देव और पुरुसोत्तम दास टंडन जैसे अनेक हिन्दी और गैर हिन्दी भाषी प्रतिनिधि सदस्य गन मोजूद थे तथा लम्बी चर्चा के बाद आपसी सहमति से ही यह निर्णय लिया गया था । यहाँ तक की तब वोटिंग की भी ज़रूरत नहीं पड़ी थी । ऐसे में संविधान निर्माण के ५९ वर्षों के बाद राजभाषा के रूप में हिन्दी को चुने जाने के औचित्य पर प्रश्नचिन्ह लगाना तथा आज यह चर्चा करना बेमानी सा लगता है।

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