14 सितंबर “हिन्दी दिवस” ही नहीं आत्ममंथन और राष्ट्रीय चेतना दिवस भी है
मेरा यह लेख पढ़ने से पहले श्री हिमांशु सक्सेना के फेसबुक पर पोस्ट किये गए इस विडियो लिंक को एकबार अवश्य देख लें -
http://www.facebook.com/home.php?#!/video/video.php?v=156993284312853
14 सितंबर प्रतिवर्ष “हिन्दी दिवस” के रूप में मनाया जाता है। आज ही के दिन सन 1949 में संघ सरकार(Union Government) की राजभाषा(Official Language) के रूप में हिन्दी को अपनाने का निर्णय सर्वसम्मति से डॉ॰ राजेंद्र प्रसाद की अध्यक्षता में गठित तत्कालीन संविधान-सभा ने लिया था। दिनांक 26 जनवरी 1950 को जब हमारे देश का संविधान लागू हुआ तभी से हिन्दी न केवल हमारे केंद्रीय सरकार के कामकाज में प्रयोग की जा रही है,बल्कि संसद और कुछ उच्च न्यायालयों की कार्यवाहियों में भी इसका प्रयोग किया जा रहा है।
http://www.facebook.com/home.php?#!/video/video.php?v=156993284312853
14 सितंबर प्रतिवर्ष “हिन्दी दिवस” के रूप में मनाया जाता है। आज ही के दिन सन 1949 में संघ सरकार(Union Government) की राजभाषा(Official Language) के रूप में हिन्दी को अपनाने का निर्णय सर्वसम्मति से डॉ॰ राजेंद्र प्रसाद की अध्यक्षता में गठित तत्कालीन संविधान-सभा ने लिया था। दिनांक 26 जनवरी 1950 को जब हमारे देश का संविधान लागू हुआ तभी से हिन्दी न केवल हमारे केंद्रीय सरकार के कामकाज में प्रयोग की जा रही है,बल्कि संसद और कुछ उच्च न्यायालयों की कार्यवाहियों में भी इसका प्रयोग किया जा रहा है।
कहने की आवश्यकता नहीं कि हिन्दी एक ऐसी भाषा है,जो हमारी आज़ादी के पहले से ही उत्तर से दक्षिण और पूरब से पश्चिम के लोगों के बीच में संवाद के लिए संपर्क भाषा रही है। कई चिंतक तो यह भी कहते हैं कि यदि सन 1857 की आज़ादी की पहली लड़ाई (अँग्रेजी इतिहासकारों ने जिसे सिर्फ "सैन्य विद्रोह"का नाम दिया था)में यदि भाषा की समस्या आड़े न आती,तो उसी वक्त हमें आज़ादी मिल गई होती। रोटी और कमल के प्रतीक भाषाई सम्प्रेषण के अभाव की पूर्ति नहीं कर सके । अंग्रेजों ने भी अपने राजकाज में हिन्दी को अपनाने की आवश्यकता और अनिवार्यता को महसूस किया था । यही कारण है कि सन 1803ई॰ में ही ईस्ट इंडिया कंपनी ने जनता से संबन्धित क़ानूनों को हिन्दी मे दिये जाने के आदेश दिये थे बाद में यह लंदन से प्रशासनिक सेवा के लिए चुने गए अधिकारियों को भारत में आने से पहले हिन्दी का व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त करना अनिवार्य कर दिया गया था । इसी परंपरा को जारी रखते हुए आज भी देश के विभिन्न प्रान्तों से केंद्रीय सिविल सर्विस के अंतर्गत प्रशासनिक सेवा के लिए चुने गए प्रत्याशियों को लाल बहादुर शास्त्री प्रशासनिक प्रशिक्षण अकादमी,मसूरी में अन्य विषयों के साथ हिन्दी भाषा का अनिवार्य अध्ययन करना पड़ता है।
दरअसल हिन्दी हमारी राष्ट्रीय एकता की कड़ी है।तमिल के महान कवि सुब्रह्मण्यम भारती ने अपने एक लेख में इसे देश की आम बोलचाल की भाषा (Common Language) कहकर दक्षिणवासियों को हिन्दी सीखने का परामर्श दिया था । “इंडिया” नामक पत्रिका में सन 1906 के आसपास “हिन्दी पेज” स्तम्भ लिखते हुए उन्होने तमिल भाषा में इसी आशय की एक टिप्पणी की थी। इसी प्रकार के विचार महात्मा गांधी,सुभाष चंद्र बोस ,कविगुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर,दयानन्द सरस्वती और अनेक हिंदीतर भाषी नेताओं ने समय-समय पर विभिन्न मंचों से व्यक्त किए थे। आज़ादी से पहले इस बात से सभी नेता मानते थे कि देश के आज़ाद होते ही राष्ट्रभाषा हिन्दी में समस्त सरकारी कामकाज होने लगेगा । इसलिए जनवरी 1946में दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा की रजत जयंती समारोह के उदघाटन के सिलसिले में मद्रास पहुंचे महात्मा गांधीजी ने एक सार्वजनिक सभा को संबोधित करते हुए कहा था – “कुछ समय के बाद हिदुस्तान आज़ाद होगा और आज़ाद हिंदुस्तान की राजभाषा हिन्दी होगी । इसलिए मैं युवा पीढ़ी से अपील करता हूँ कि वे अभी से हिन्दी सीखना शुरू करें और देश के आज़ाद होते ही शासन के समस्त कार्यकलाप हिन्दी में संपन्न करें ताकि अँग्रेजी का वर्चस्व अपने आप समाप्त हो जाए।”वे इस बात से इतने आश्वस्त थे कि भारत के स्वतंत्र होने पर बीबीसी के एक पत्रकार ने जब उनसे संदेश मांगा तो उन्होने तुरंत कह दिया था –“दुनिया से कह दो कि गांधी अँग्रेजी भूल गया।”(स्रोत-प्रकाशन विभाग,सूचना और प्रसारण मंत्रालय द्वारा प्रकाशित “राजभाषा हिन्दी” नामक पुस्तक में श्री राजकुमार सैनी जी के लेख का अंश)
पर यह कितनी विडंबना की बात है कि देश के आज़ाद होते ही हिन्दी में शासन के समस्त कार्यकलाप शुरू करने की उनकी अभिलाषा अधूरी ही रह गई और हिन्दी केवल राजभाषा संकल्प ,अधिनियम, नियम और वार्षिक कार्यक्रमों के दायरे में ही सिमट कर रह गई। वहीं अंग्रेजों के जाने के बाद भी अँग्रेजी शान से देश पर राज कर रही है और राजभाषा अधिनियम 1963 (यथासशोधित 1967) के चलते अब तो स्थिति इतनी जटिल हो गई है कि अगर सिक्किम जैसा छोटा सा हिंदीतरभाषी प्रदेश भी अगर न चाहे तो इस देश से अँग्रेजी को नहीं हटाया जा सकता (देखें- राजभाषा अधिनियम की धारा –5)। भारत जैसे एक प्रजातांत्रिक देश में जहां सारे फैसले बहुमत से लिए जाते हों, बहुमत के ही फैसले की ऐसी घोर अवमानना भला और कहाँ देखने को मिलेगी कि यदि 27 राज्य और 7 केंद्रशासित क्षेत्र मिलकर भी चाहें तो किसी अधिनियम को न बदल सकें? सोचिए क्या यह संविधान की मूल भावना के विपरीत तो नहीं है ?
प्रति वर्ष हिन्दी दिवस हमें यह सोचने के लिए मजबूर करता है कि यदि विश्व के सारे विकसित देश जैसे जापान,जर्मनी,फ्रांस,ब्रिटेन और चीन आदि अपनी-अपनी राष्ट्रभाषा का प्रयोग अपने समस्त कामकाज में करते हैं ; मेडिकल और इंजीनियरिंग की पढ़ाई भी वे अपनी ही भाषा में करते हैं तथा अपनी देशी भाषा को बोलने में गर्व का अनुभव करते हैं तो फिर हमें एक पराई भाषा अँग्रेजी बोलने में आत्म गौरव तथा अपनी देशी भाषा को बोलने में आत्मग्लानि का अनुभव क्यों होता है?यह एक राष्ट्रीय चिंतन का विषय होना चाहिए कि आज़ादी के इतने सालों बाद भी हम व्यावहारिक तौर पर अपनी प्रादेशिक और राजभाषा को वह प्रतिष्ठा और गौरव क्यों नहीं दे पाये हैं जिसकी वह हकदार है? सरकारी मदद के बावजूद देशी भाषाओं (vernacular)की स्कूलो की हालत क्यों इतनी बदतर है?और बिना सरकारी मदद लिए ही जनता से मोटी फीस वसूलकर निजी कान्वेंट स्कूल कैसे इतना फल फूल रही हैं? कहीं इसके लिए हमारी वे नीतियाँ तो जिम्मेदार नहीं जो बिना अँग्रेजी जाने किसी को एक चपरासी की नौकरी भी मुहैया नहीं करा सकती?
कुछ लोग मान बैठे हैं कि अँग्रेजी के बिना हमारा काम ही नहीं चलेगा । कुछ तो अभी भी कहते हैं कि हिन्दी में प्रशासनिक ,विधिक,तकनीकी आदि क्षेत्रों से संबन्धित शब्दावली की कमी है !जबकि हकीकत यह है कि मानव संसाधन विकास मंत्रालय के अंतर्गत वैज्ञानिक और तकनीकी शब्दावली आयोग की स्थापना के बाद से प्रशासनिक और तकनीकी शब्दावली की बाढ़ सी आ गई है ।अब प्रशासन और ज्ञान विज्ञान के सभी विषयों(विधि को छोडकर)में तकनीकी शब्दों को अनुमोदित तथा मानकीकृत कर उनका कम्प्यूटरीकृत डाटाबेस शब्दावली आयोग ने तैयार किया है। इसीप्रकार विधि मंत्रालय ने भी विधि शब्दावली का वृहत कम्प्यूटरीकृत डाटाबेस तैयार किया है। आम जनता के निशुल्क उपयोग के किए इन्टरनेट पर राजभाषा विभाग ने “ई-महाशब्दकोश”भी उपलब्ध करवाया है। सूचना प्रौद्योगिकी की संकल्पना के अनुरूप राजभाषा विभाग ने अपनी सेवाओं का विस्तार किया है,और अब केवल सरकारी कर्मचारी ही नहीं बल्कि कोई भी इंटरनेट प्रयोगकर्ता कभी भी कहीं भी इसका लाभ उठा सकता है। पिछले कई सालों से प्रत्येक वर्ष राजभाषा विभाग “हिन्दी दिवस” के उपलक्ष्य में कोई न कोई नया सॉफ्टवेयर जारी किया है। जैसे ऑनलाइन हिन्दी सीखने के लिए लीला हिन्दी प्रबोध ,प्रवीण और प्राज्ञ सॉफ्टवेयर जारी हुए। हिन्दी अँग्रेजी में मशीनी अनुवाद के लिए “मंत्र”तथा स्वतः टाइपिंग हेतु “श्रुतलेख” सॉफ्टवेयर जारी हुए। “वाचान्तर” इन सबमें नवीन और उन्नत है जो न केवल अँग्रेजी में बोले गए वाक्यांशों को स्वतः टाइप कर लेता है बल्कि साथ ही साथ उसका हिन्दी में भी अनुवाद प्रस्तुत करता चलता है,अगर यह प्रयोग सफल रहा तो वह दिन दूर नहीं जब अँग्रेजी से किसी भी भारतीय भाषा मे अथवा विलोमतः किसी भी भारतीय भाषा से अँग्रेजी में मिनटों में अनुवाद हो सकेगा। माइक्रोसॉफ्ट ने यूनिकोड की सुविधा उपलब्ध कराकर हिन्दी के इंटरनेट पर प्रयोग को और सुगम बना दिया है इसी प्रकार टेक्नालजी डेवलपमेंट फॉर इंडियन लेंगुएज के “परिवर्तक” सॉफ्टवेयर और भाषा इंडिया के द्वारा विकसित “फांट कन्वर्टर”सॉफ्टवेयर ने किसी भी हिन्दी फॉन्ट को युनिकोड मे परिवर्तित करने की सुविधा प्रदान कर कंप्यूटर पर हिन्दी में काम करना और आसान कर दिया है । अब कंप्यूटर पर कोई फ़ाइल भेजते समय हिन्दी फॉन्ट अपाठ्य हो जाने की शिकायत बिलकुल बेमानी हो गई है।
अगर सरकारी प्रयासों की बात की जाए तो भी कहा जा सकता है कि सरकारी स्तर पर भी हिन्दी को आगे बढ़ाने के लिए पिछले पाँच दशक में अनेक काम हुए हैं। केंद्र सरकार के गृह मंत्रालय के अंतर्गत राजभाषा विभाग समय-समय पर राजभाषा संबंधी नीतियों की समीक्षा करता रहता है। इसी के फलस्वरूप सन 1952 में जहां केंद्र सरकार के कर्मचारियों के लिए हिन्दी का सेवाकालीन प्रशिक्षण वैकल्पिक था,उसे राष्ट्रपति के सन 1960 में जारी आदेश के तहत अनिवार्य कर दिया गया। बाद में औद्योगिक क्षेत्रों में कार्यरत तकनीकी कर्मचारियों को हिन्दी के सेवा कालीन प्रशिक्षण से मिली छूट को रद्द कर उनके लिए भी प्रशिक्षण को अनिवार्य घोषित कर दिया गया। सन 1968 में जारी राजभाषा संकल्प के आधार पर तैयार वार्षिक –कार्यक्रम में सरकारी संस्थाओं को चरणबद्ध तरीके से तथा निर्धारित समय सीमा के भीतर लक्ष्य हासिल करने का दबाव डाला गया ,जिसके परिणाम स्वरूप अब भारत के किसी भी अंचल में स्थित केंद्रीय सरकार का एक भी कार्यालय ऐसा नहीं रहा जो बिलकुल भी हिन्दी में कार्य न करता हो। केंद्र सरकार के कार्यालयों तथा उसके स्वामित्व या नियंत्रणाधीन उपक्रमों,बैंकों तथा स्वायशासी संस्थाओं,निकायों आदि पर 1963में पारित राजभाषा अधिनियम (यथासंशोधित 1967)तथा सन 1976में बने राजभाषा नियम (यथासंशोधित 1976) के लागू होने के बाद से हिन्दी का सरकारी प्रयोग व्यापक रूप से बढ़ा है। अब एटीएम मशीनों ,रेल्वे की टिकटों और आरक्षण तालिकाओं ,सार्वजनिक सूचना पटों तथा राष्ट्रीयकृत बैंकों के कार्यकलापों में भी हिन्दी दिखने लगी है। हिन्दी के प्रयोग कि बाध्यता संबंधी राजभाषा अधिनियम और नियमों के प्रति जागरूकता होने का ही यह प्रतिफल है कि केंद्र सरकार के कार्यालयों में हिन्दी में पत्राचार और टिप्पणी लेखन,हिन्दी पुस्तकों की खरीद,कंप्यूटर आदि इलेक्ट्रोनिक उपकरणों में द्विभाषी सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल,सरकारी कार्यालयों की वेब साइटों का द्विभाषीकरण तथा न्यूनतम हिन्दी पदों का सृजन आदि अनेक महत्वपूर्ण कदम सभी कार्यालयों ने तत्परता से लिए हैं तथा सरकारी नियमों को ठेंगा दिखाने वाले कार्यालय प्रमुखों को संसदीय राजभाषा समिति की फटकार भी सुननी पड़ती है। ऐसे कार्यालय हमेशा गृह मंत्रालय के राजभाषा कार्यान्वयन कार्यालय के अधिकारियों के निरीक्षण दौरों के समय निशाने पर रहते हैं। इसलिए इस बात में कोई शक नहीं कि पहले की तुलना में हिन्दी का प्रयोग सरकारी कार्यालयों में बढ़ा है। पर मंज़िल अब भी कोसो दूर है।
हिन्दी के प्रचार –प्रसार में यदि फिल्मों और मीडिया की भूमिका की चर्चा न करें तो यह अन्याय होगा। मुझे यह कहने में जरा भी झिझक नहीं है कि हिन्दी फिल्मों और निजी टीवी चैनलों के कार्यक्रमों व धारावाहिकों तथा मीडिया (विशेषकर हिन्दी समाचार पत्रों) ने आम जनता के बीच हिन्दी को लोकप्रिय बनाने में अपनी जो अभूतपूर्व और अतुलनीय भूमिका निभाई है वह सरकारी प्रयासों से कहीं ज़्यादा व्यापक और सफल रही है। इसी का नतीजा है कि आज दक्षिण भारत में ही नहीं ,विदेशों में भी मुंबई की फिल्में और गाने बड़े चाव से देखी –सुनी जा रही हैं। हालांकि उनके काम के तौर तरीकों पर आपत्ति जताई जा सकती है । फिल्मों की बात न भी करें तो भी टीवी के हिन्दी न्यूज़ चैनलों की हिन्दी भी हिन्दी कम और “हिंगलिश” ज़्यादा लगती है। संभवतः यही उनकी लोकप्रियता का राज़ भी हो ;पर मुश्किल यह है कि दूरदर्शन और आकाशवाणी जैसे राष्ट्रीय चैनल अपना टीआरपी बढ़ाने के लिए चाहकर भी इन तौर तरीकों का इस्तेमाल नहीं कर सकते और उन्हे ऐसा करना भी चाहिए। पर जो भी हो किसी न किसी बहाने भला तो हिन्दी का ही हो रहा है।
इस विवेचना के बाद हमें अपनी ज़िम्मेदारी को भी समझना चाहिए । सरकारी नीतियों की आलोचना करना आसान है पर निभाना उतना ही कठिन है। क्या हमने कभी आत्म मंथन किया है कि हम हिन्दी भाषी खुद हिन्दी के लिए क्या कर रहे हैं? क्या कर सकते हैं?? क्या करना चाहिए???ज़रा सोचिए – क्या हम हिन्दी मे हस्ताक्षर करते हैं? क्या अहिंदी भाषियों के गलत हिन्दी बोलने पर हम उनका उपहास तो नहीं उड़ाते?अपने दैनिक कामकाज में हिन्दी का कितना इस्तेमाल करते हैं – जैसे चेक हिन्दी मे लिखना , एटीएम से धन निकासी करते समय उसमे हिन्दी विकल्प का प्रयोग करना,शुभकामना संदेश हिन्दी में लिखना , निमंत्रण पत्रादि हिन्दी में छपवाना, ई-मेल हिन्दी में भेजना आदि-आदि। आलोचना न कर यदि हम खुद ही मिसाल प्रस्तुत करें तो इससे बड़ी बात क्या होगी। मैंने अपने शिलचर (असम) में बिताए कार्यकाल मे पाया कि गुमनामी के अंधेरे में रहकर भी वहाँ काफी लोग ऐसे हैं जो हिन्दी के निष्ठावान कार्यकर्ता हैं । ऐसे ही एक वयोवृद्ध करीब 80 वर्षीय हिन्दी सेवी श्री दत्तात्रेय मिश्र (अब दिवंगत्) से जब 1998 में मैं मिला तो पता चला कि उन्होने अपना सारा जीवन ही इस सुदूर अंचल में आकर हिन्दी के प्रचार प्रसार में लगा दिया । चाय बागानो में कार्यरत मजदूरों और वहाँ से विस्थापित हिन्दी भाषियों के बच्चों की शिक्षा दीक्षा के लिए सामूहिक प्रयासों से खोले गए हिन्दी विद्यालयों में उन्होने अपनी सेवाएँ दी और कालांतर में राष्ट्रभाषा विद्यापीठ के संचालक आचार्य बने। अहिंदी भाषियों को हिन्दी सीखने के लिए उन्होने हरतरह से प्रयास किया। चाय बागान से काम कर लौटे बच्चों को दीये या लालटेन की टिमटिमाती रोशनी में हिन्दी की बारहखड़ी पढ़ाई । जो एक आना या दो आना फीस भी नहीं दे सकते थे, उन्हे भी मुफ्त में ही सालों साल पढ़ाया। और तो और भूतपूर्व केंद्रीय मंत्री श्री संतोष मोहन देव के पिता से भी उन्होने अनुरोध किया कि आप भी हिन्दी सीख लें। उन्होने अपनी व्यस्तता के कारण समय न दे पाने की बात कही। गुरुजी भी कहाँ मानने वाले थे उन्होने कहा ठीक है जब आप प्रातः सैर (मार्निंग वाक)पर निकलेंगे तो मैं आपके साथ चलते-चलते हिन्दी सिखाया करूंगा। और फिर हिन्दी सिखाने का दौर चल पड़ा। जब तक देव साहब नित्यकर्म से निपट कर सैर को निकाल नहीं जाते तब तक मिश्रजी दरवाजे के बाहर अपना डेरा जमाये रहते। ऐसे हिन्दी के कर्मठ सेवी के प्रति मेरी गहरी श्रद्धा होनी ही थी। जब भी वे मेरे दफ्तर आते थे तो मैं उन्हे अपनी कुर्सी पर बिठाकर सुख का अनुभव करता था। अगर ऐसे लोगों से प्रेरणा लेकर हम आगे बढ़े तो मंज़िल मिल ही जाएगी।
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें