हिन्दी की बात उनकी अपनी कलम से : भाग- I
- सार्वभौम नागरी -
हम चाहते हैं कि हिंदुस्तान की सब प्रांतीय भाषाओँ के लिए नागरी लिपि का ही व्यवहार हो । किन्तु इसमें किसी पर जबरदस्ती नहीं होनी चाहिए । सारे देश में सब लोग तमाम भाषाएँ एक ही लिपि में लिखते जाएँ तो कितना लाभ होगा !नागरी अक्षरों की छपाई के दो तीन ढंग हैं । लिखावट के ढंग बहुत हैं । इसलिए केवल छपे हुए सिखाने से हमारा काम नहीं चल सकता । अलग अलग शैली की लिखावट पहचान के लिए उन्हें पढ़ने की आदत डालनी पड़ती है।यहाँ पर हमने ज़ुदे- ज़ुदे सूबों के भिन्न भिन्न शैली के नमूने इकट्ठे कियें हैं । जो लोग सुवाच्य साफ नागरी अक्षर लिखना चाहते हैं , और ख़राब ढंग को टालना चाहते हैं वे यहाँ के लेखन शैली का ध्यानपूर्वक अध्ययन करें . लिखते समय पढ़ने वालों का भी थोडा ख्याल दिल में रखना चाहिए . आखिरकार पदनेवालों के लिए लिखा जाता है .तेजी से लिखना हो तो हमें अक्षरों के ऊपर की शिरोरेखा छोड़ देनी होगी .- काका कालेलकर (१५-०५-१९४०) नर जीवन के स्वार्थ सकल
बलि हों तेरे चरणों पर
मां, मेरे श्रम संचित सब फूल।
जीवन के रथ पर चढ़कर
सदा मृत्यु पथ पर बढ़कर
महाकाल के खरतर भार
सह सकूँ , मुझे तू कर दृतर,
जागे मेरे उर में तेरी मूर्ति अभ्रजल धौत विमल ,
दृगजल से पा बल बलि
कर दू जननी जन्म श्रम संचित फल ।
- सूर्यकांत त्रिपाठी , निराला
प्रियवर
हिन्दी भारत वर्ष के ह्रदय की वाणी है । भौगोलिक सत्य भी यही है कि हिंदी भाषिओं का क्षेत्र , मानचित्र में , देश के ह्रदय का स्थान है । अतः यह स्वाभाविक ही है कि हिंदी में आज उस साहित्य की रचना हो रही हो जिसमे देश के कलेजे की धड़कन स्पष्ट गिनी जा सकती है . हम धरती पर के उन तमाम अन्दोलोनों से रस ग्रहण कर रहे हैं जो मनुष्य समाज और संस्कृति की अग्रगति के अनुकूल और सर्वांगीन स्वाधीनता के आदर्श के सहायक है . मिटटी की आवाज़ आकाश में गूंज रही है और अरूप का सौंदर्य रूप का श्रृंगार सजाने के निमित्त निचे उतर रहा है . "पल्लव" और "परिमल" के सुकुमार स्रष्टा आज रुक्ष वातावरण में सीनातान कर खड़े हैं और वहां प्रहारों का आदान - प्रदान बड़ी भीषणता के साथ चल रहा है . जो लोग केवल सुकुमारता के प्रेमी हैं उन्हें आकाश पर उठानेवाले तूफान के पूर्वलक्षणों को पढ़कर यह सोच लेना चाहिए कि भारत की राष्ट्रभाषा को शरत की आवश्यकता है या "प्रेमचंद" की , "रवीन्द्र" की या "माखनलाल" की . देश न तो केवल पिता है और न माता , वह अर्ध नारीश्वर का अवतार है और यह संतोष की बात है कि आज हमारे बीच अर्धनारीश्वर के उपासकों की संख्या अधिक है । - रामधारी सिंह "दिनकर" (०२-०२-१९४०) सीतामढी (बिहार )
वीरों का कैसा हो वसंत ?
आ रही हिमांचल से पुकार है
उदधि गरजता बार बार ,
प्राची पश्चिम भू नभ अपार
सब पूछ रहे हैं डिग दिगंत ।
वीरों का कैसा हो वसंत ?
कह दे अतीत खुद मौन त्याग
लंका ! तुझ में क्यों लगी आग
कुरुक्षेत्र ! अब जग जाग ।
बतला अपने अनुभव अनंत
वीरों का कैसा हो वसंत ?
-- सुभद्रा कुमारी चौहान (१९-१०-१९३९)
हिंदी, अंग्रेजी के बाद दुनिया के अधिक संख्यावाले लोगों की भाषा है । इसका साहित्य ७५० इसवी से शुरू होता है , और सरहपा , कन्हापा , गोरखनाथ , चन्द्र, कबीर, जायसी, सूर, तुलसी,बिहारी, हरिश्चंद्र, जैसे कवि और लल्लूलाल , प्रेमचंद जैसे प्रलेखक दिए हैं इसका भविष्य अत्यंत उज्जवल , भूत से भी अधिक प्रशस्त है। हिंदी भाषी लोग भूत से ही नहीं आज भी सब से अधिक प्रवास निरत जाति हैं । गायना (दक्षिण अमेरिका ) , फिजी,मर्शेस ,दक्षिण अफ्रीका, तक लाखों की संख्या में आज भी हिंदी भाषा भाषी फैले हुए हैं . -- राहुल सांकृत्यायन ( वाराणसी )
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